आज वो फिर आई थी,
कुछ बिखरे ,कुछ उलझे हुए लफ्ज़ लेकर ,
और जाते हुए मुझसे कह गयी,
अपने बिखरे हुए लफ्ज़ समेटने को,
और साथ ही सवाल भी कर गयी...
क्या समेट पायोगे मेरे बिखरे,उलझे लफ्ज़...
शायद उसे अहसास ही नहीं,
के में खुद कितना बिखरा हुआ हूँ,
लेकिन ,फिर भी हर बार की तरह,
इस बार भी कोशिश कर रहा हूँ,
उसके बिखरे,उलझे लफ़्ज़ों को समेटने की,
जिन्हें वो गीत की तरह गाना चाहती है,
ग़ज़ल की तरह गुनगुनाना चाहती है,
उसका एक एक लफ्ज़ मेरी नसों में बह रहा है लहू बन कर,
उसके बिखरे लफ़्ज़ों को लिखता हूँ उसके लिए,
जी तो बहुत चाहता है....
के वो भी कभी मेरे बिखरे लफ़्ज़ों को समेटे,
मगर ,कह नहीं पता,
क्युंकी में उसे टूटते हुए नहीं देखना चाहता,
नहीं चाहता की वो भी बिखर जाए मेरी तरह,
इसलिए हर बार की तरह,
खुद को उसके लफ़्ज़ों में समेट उसकी नज़र कर देता हूँ,
जिन्हें पढ़ कर वो अपनी बेजान मुस्कुराहटों को सेंक लेती है,
कुछ पल के लिए,
और उस वक़्त उसके खामोश से लब,
कुछ समेटे हुए लफ्ज़ मेरे लिए कह जाते हैं,
और फिर से वादा कर जाती है जाते हुए...
फिर से बिखरे हुए लफ्ज़ दे जाने का,
और कह जाती है...
कल तुम मेरे लफ्ज़ नहीं,
मुझे समेट लेना,
खुद में,
ताकि में फिर कभी मै बिखरे लफ्ज़ लेकर ना आयूँ,
क्युंकी मैं जान गयी हूँ,
तुम अब मुझको खुद में समेट चुके हो.