इश्क - ए - मय में मीना थी और साकी भी था
देर तलक दौर - ए - जाम चला दर्द फ़िर भी बाकी था -
- - - नीलम- - -
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Thursday, September 24, 2015
दौर - ए - जाम . .
जटा में गंग धार है . . . .
जटा में गंग धार है
गले में सर्प हार है
बज रहा मृदंग है
शिव नीलकंठ है
भस्म से सजा कपाल है
शरीर पर सिंह छाल है
हिमालय इनका वास है
माँ पार्वती भी साथ हैं
पुत्र कार्तिकेय - गणेश हैं
भक्त इनके अनेक हैं
कर रहे जलाभिषेक हैं
कावड कोई सजा रहा
कोई ढूध से नहला रहा
और सावन बरस कर रहा अभिषेक है
शिव शक्ति बस एक है - - -
- - - - नीलम - - - -
छिलि हुई तन्हाई . .
देखो . . .
ये जो मेरे लबो पर
ठहरी सी मुस्कान तुम्हे दिखाई दे रही है ना
ये वो मुस्कान नहीं
जो तुम समझ रहे हो
ये तो छिलि हुई तन्हाई है
खुरची हुई यादें हैं
कुरेदे हुए
टूटे ख्वाबो की
किरचे हैं
जो मुझे तुम्हारे करीब और करीब ले आते हैं
और ये जो मेरे माथे पर बिखरी लटे देख रहे हो ना
ये वो बदहाली है
जिसे मैं हर रात सुलझाने की नाकाम कोशिश करती हूँ
मेरे हाथों की महँदी का सुर्ख रंग देख रहे हो ना ! !
ये मेरे अंतर्मन के जख्मों से ही सुर्ख हुआ है
अब तुम यकीं करो ना करो
क्या फर्क पड़ता है
क्योंकि तुम तो इश्क की बूँदों से सराबोर हो गये हो ना . .
तुम क्या जानो . .
तुम्हे सराबोर करने में
तुम्हारे रेगिस्तान को सहरा करने के लिये
कोई कितना रोया होगा . . .
- - -नीलम - - -
Sunday, September 20, 2015
रूह - ए - पैरहन
तेरे लिबास की सिलवटें कुछ बयान करे ना करे
तेरी रूह ए पैरहन पे अक्सर ठहर जाती है नज़र मेरी - - नीलम - - - -
Saturday, September 19, 2015
देह के परे भी होती है इक देह . . .
देह के परे भी होती है
इक देह . . .
कभी छूना उसे
तब नाप लोगे
सही मायने में
देह से रूह तक की दूरी
और जान जाओगे
मुझमें अपने होने का अहसास
और तब तुम में मैं
और मुझमें तुम
समा जाओगे
देह का मिलन फ़िर रूह के रास्ते होकर
रूह तक चला जायेगा
और तुम्हारा मुझे सिर्फ देह समझना
ये भ्रम भी टूट जायेगा
- - - नीलम - --
जो भी है बस यही इक पल है . . . .
उम्र भले ही कर गई हो
पचास पार . . .
मगर मैं आज भी जीता हूँ तुम्हे
वही अल्हड़ जवानी के जवां शक्स सा
उम्र में वैसे भी रखा क्या है
कौन जाने
कब निकल जायेंगे प्राण
बिना किसी से कुछ कहे
बिना सुने
मौका भी कहाँ देती है जिंदगी
बार बार जिंदगी जीने का
बस . . . .
इसिलए तो मैं
जीता हूँ हर पल
हर लम्हे को तुम सा
जैसे तुम
फ़िर मिलो ना मिलो
वैसे ही जीता हूँ जिंदगी भी
कल हो ना हो . . .
जो भी है बस यही इक पल है - - - - नीलम - - -
बीते लम्हे
हम - तुम
कितने भी यत्न - प्रयत्न कर ले
बीते लम्हे कभी नहीं लौटते
लौट आते हैं
सावन - भादों
भिगो भी जाती हैं
रिम झिम फुहारें
मगर तुम जाने क्यों नहीं आते
अपनी यादों के साथ
मैं बाट जोहती रह जाती हूँ
भीगे तन - ओ - मन के साथ
काश ! !
हमने समझा होता
हालातों को
जी लिये होते
वो हसीन लम्हे
वक्त रहते जान लिया होता
ये पल ये लम्हे ,
ये सावन और भादों
फ़िर कभी -
ऐसे पल लौटाने नहीं आयेंगे
जब आयेंगे
तब अपने साथ
एक टीस
एक तड़प
दे जायेंगे
मगर तुम तो जी रहे हो ना
तुम्हारा अपनापन और वक्त के बीते लम्हे
और मैं . . .
हाँ मैं भी जी रही हूँ
अपने और तुम्हारे हिस्से का खोखलापन
इस उम्मीद में
तुम फ़िर आयोगे
और खेलोगे मेरी
उलझी लटों के साथ
और अपनी उँगलियों से
सुलझा दोगे सारे
शक - ओ - शुबहा - - - - नीलम - - -
Thursday, September 17, 2015
हिफाजत . . .
उसकी हिफाजत का सलीका भी गजब निकला . . .
कैद में भी रखता है मुझे पर कतर - कतर के - - - - नीलम - - - -
Sunday, September 13, 2015
क्यों अजीब लगता है तुम्हे . .
क्यों अजीब लगता है तुम्हे . . .
तुम्हारा मेरा साथ
हाँ ! !
जानती हूँ
कोई रिश्ता नहीं है
हमारे दरमिया
कोई बंधन भी नहीं है
मगर फ़िर भी
कुछ तो है ना
वो जो दर - ओ - दीवार पर टंगा है
यादों जैसा
वही जो खिड़कियों के परदे पर लहलहाता हुआ
कुछ बेपरवाह सा तुम्हारा अल्हड़पन
मैं तो बस अब तुम्हे ही जीती हूँ
अपने में ,
अपना सा
किसी सवाल जवाब से परे
किसी रिश्ते
किसी बंधन से परे
बँध जो चुकी हूँ
तुम्हारी यादों की परछाई के साथ
और जी लेती हूँ
तुम्हारा मुझ में होने का अहसास - - - - - नीलम - - - -