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Friday, February 21, 2014

विदा . . .




जो अपने थे मगर अपने नहीं थे, फिर भी अपनों से बढ़कर थे,
उनके चले जाने की कमी बेहद्द तक़लीफ़ देती हैं, क्यूंकि कई बार हम अपनों से भी वो सब साझा नहीं कर पाते जो करना चाहते हैं, और तब यही अपने जो अपने नहीं होते, फिर भी अपनों से बढ़कर लगते हैं,
क्यूंकि हम उन्हें कह पाते हैं अपने मन की हर ख़ुशी, हर दर्द ,
और जब यही अपने दूर बहुत दूर चले जाते हैं ,तब जो रिक्तता आती है जीवन में उसे कोई दूसरा भर नहीं पाता , तब बेहद्द अकेलापन महसूस होता है , और तब शब्दकोष का सबसे रुआंसा शब्द बन जाता है विदा......


मुश्किल होता है कह पाना ...
विदा....
जो शब्दकोष का सबसे ruy शब्द  है ,
विदा शब्द ज़ेहन में आते ही तड़पने लगता है मन ,
विदा लेते ही छलकने लगती हैं आँखें ,
जाने क्यूँ ,
विदा ले लेने के बाद भी ,
शेष रह जाता है सब कुछ ,
जो किसी के चले जाने के बाद भी ,
गया हुआ नहीं लगता ,
लगता है तो बस इतना ,
जैसे रिक्त हो गया हो कोई स्थान ,
मगर रिक्त नहीं होती यादें,
और विदा होने के बाद भी रह जाते हैं शेष...
आंसूं ,यादें ,और स्पष्ट होते हुए चेहरे !!!! [नीलम]

(शब्दकोष का सबसे रुआंसा शब्द है विदा.....) ये लाईनें मैंने दीपक अरोरा जी की रचना में पढ़ीं थीं , उन्ही से प्रेरित होकर कुछ लिखने की कोशिश की है , या यूँ कहिये अपनों से विदा होने का दंश जो मैं भी झेल रही हूँ उसे शब्द देने कि कोशिश की है ……..

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