हाँ ! ! !
पढ़ी तुम्हारी कविता
मगर . . . .
तुम कब लिख पाये मुझे समेट कर ,
तुम्हारे मुट्ठी भर अक्षर
और चुटकी भर सम्वेदना छितरा देने भर से ही तो कविता नहीँ हो जाती ना ,
कविता कहने के लिये कुछ बीते लम्हे जीने पड़ते है
और. . . .
कुछ बिखरी सदियां मर मर कर समेटनी पड़ती हैं
तुम्हारे ये मुट्ठी भर अक्षर ,
चुटकी भर सम्वेदना
सब बिखरे ही तो पड़े रहते हैं
तुम्हारी कविताओं में ,
और फ़िर कतरा - कतरा
उन्हे अपनी कविताओं में समेटते हुए ना जाने कितनी बार टूट कर बिखरती हूँ मैं ,
कभी तो लिखो मुझे
अपनी कविताओं में
पढ़ी तुम्हारी कविता
मगर . . . .
तुम कब लिख पाये मुझे समेट कर ,
तुम्हारे मुट्ठी भर अक्षर
और चुटकी भर सम्वेदना छितरा देने भर से ही तो कविता नहीँ हो जाती ना ,
कविता कहने के लिये कुछ बीते लम्हे जीने पड़ते है
और. . . .
कुछ बिखरी सदियां मर मर कर समेटनी पड़ती हैं
तुम्हारे ये मुट्ठी भर अक्षर ,
चुटकी भर सम्वेदना
सब बिखरे ही तो पड़े रहते हैं
तुम्हारी कविताओं में ,
और फ़िर कतरा - कतरा
उन्हे अपनी कविताओं में समेटते हुए ना जाने कितनी बार टूट कर बिखरती हूँ मैं ,
कभी तो लिखो मुझे
अपनी कविताओं में
पूरा का पूरा
- - - नीलम - - -
कविता कहने के लिये कुछ बीते लम्हे जीने पड़ते है
ReplyDeleteपहले जीना होता है कविता में फिर बनती हैं कविता ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...