सही कहती हो
तुम लिखना कहाँ जानती हो
तुम तो सिर्फ मुझे पढ. गढ रही हो
तुम पी रही हो अपने हिस्से का समन्दर
और मैं
झरने सा कल कल करता जल बन समा रहा तुझमे
तुम पी रही हो उतारा हुआ अँधेरा
और मैं
मैं जी रहा हूँ तुम्हारा दिया हुआ सवेरा
सच कहती हो
तुम कब मिलती हो मुझे कागज़ की आडी टेडी रेखाओं में .
तुम तो मुझे मिलती हो
मेरी कविताओं में
हाँ ...
अब मैने भी कोरे पन्नों को छू कर
तुम्हे जान लिया है
इसिलिये तो
बिन छुए
तुम्हे अपना मान लिया है
...नीलम...
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