देखो . . .
ये जो मेरे लबो पर
ठहरी सी मुस्कान तुम्हे दिखाई दे रही है ना
ये वो मुस्कान नहीं
जो तुम समझ रहे हो
ये तो छिलि हुई तन्हाई है
खुरची हुई यादें हैं
कुरेदे हुए
टूटे ख्वाबो की
किरचे हैं
जो मुझे तुम्हारे करीब और करीब ले आते हैं
और ये जो मेरे माथे पर बिखरी लटे देख रहे हो ना
ये वो बदहाली है
जिसे मैं हर रात सुलझाने की नाकाम कोशिश करती हूँ
मेरे हाथों की महँदी का सुर्ख रंग देख रहे हो ना ! !
ये मेरे अंतर्मन के जख्मों से ही सुर्ख हुआ है
अब तुम यकीं करो ना करो
क्या फर्क पड़ता है
क्योंकि तुम तो इश्क की बूँदों से सराबोर हो गये हो ना . .
तुम क्या जानो . .
तुम्हे सराबोर करने में
तुम्हारे रेगिस्तान को सहरा करने के लिये
कोई कितना रोया होगा . . .
- - -नीलम - - -
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