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Saturday, June 13, 2015

तुम्हारी कविता . . .

हाँ ! ! !
पढ़ी तुम्हारी कविता
मगर . . . .
तुम कब लिख पाये मुझे समेट कर ,
तुम्हारे मुट्ठी भर अक्षर
और चुटकी भर सम्वेदना छितरा देने भर से ही तो कविता नहीँ हो जाती ना ,
कविता कहने के लिये कुछ बीते लम्हे जीने पड़ते है
और. . . .
 कुछ बिखरी सदियां मर मर कर समेटनी पड़ती हैं
तुम्हारे ये मुट्ठी भर अक्षर ,
चुटकी भर सम्वेदना
सब बिखरे ही तो पड़े रहते हैं
तुम्हारी कविताओं में ,
और फ़िर कतरा - कतरा
 उन्हे अपनी कविताओं में समेटते हुए ना जाने कितनी बार टूट कर बिखरती हूँ मैं ,
कभी तो लिखो मुझे
अपनी कविताओं में 
पूरा का पूरा 
- -  - नीलम - - -