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Wednesday, March 20, 2013

वही नजदिकिया ,





वही नजदीकियां ,
वही फांसले भी थे ,
रहे क़दमों के निशाँ मिटते मगर ,
फिर भी इस दिल ने याद तुम्हे बहुत किया...

वही रस्मे...
वही रवायतें भी निभती रहीं ,
भीड़ में रहे दोनों मगर,
फिर भी इस दिल ने याद तुम्हे बहुत किया...

कभी शर्म -ओ- हया ,
कभी तपिश-ए-बदन,
रहे जलते -बुझते दोनों मगर ,
फिर भी इस दिल ने याद तुम्हे बहुत किया...

वही झुकी पलकें मेरी रहीं ,
वही ख्वाब मेरा तेरे तकिये तले,
रहे जागते दोनों मगर ,इज़हार न तूने किया न मैंने किया,
फिर भी इस दिल ने याद तुम्हे बहुत किया...

ज़माने की खातिर मैं हो गयी बे-वफ़ा,
बिन मिले बिछड़े दोनों मगर,
ना अपने हिस्से का प्यार मैंने किया न तूने किया,
फिर भी इस दिल ने याद तुम्हे बहुत किया.....[नीलम]
 — 

5 comments:

  1. रहे जागते दोनों मगर ,इज़हार न तूने किया न मैंने किया,
    फिर भी इस दिल ने याद तुम्हे बहुत किया.bahut khubsurat
    latest postऋण उतार!
    latest postउड़ान

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  2. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    http://saxenamadanmohan.blogspot.in/

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