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Saturday, September 19, 2015

बीते लम्हे

हम - तुम
कितने भी यत्न - प्रयत्न कर ले
बीते लम्हे कभी नहीं लौटते
लौट आते हैं
सावन - भादों
भिगो भी जाती हैं
रिम झिम फुहारें
मगर तुम जाने क्यों नहीं आते
अपनी यादों के साथ
मैं बाट जोहती रह जाती हूँ
भीगे तन - ओ - मन के साथ
काश ! !
हमने समझा होता
हालातों को
जी लिये होते
वो हसीन लम्हे
वक्त रहते जान लिया होता
ये पल ये लम्हे ,
ये सावन और भादों
फ़िर कभी -
ऐसे पल लौटाने नहीं आयेंगे
जब आयेंगे
तब अपने साथ
एक टीस
एक तड़प
दे जायेंगे
मगर तुम तो जी रहे हो ना
तुम्हारा अपनापन और वक्त के बीते लम्हे
और मैं . . .
हाँ मैं भी जी रही हूँ
अपने और तुम्हारे हिस्से का खोखलापन
इस उम्मीद में
तुम फ़िर आयोगे
और खेलोगे मेरी
उलझी लटों के साथ
और अपनी उँगलियों से
सुलझा दोगे सारे
शक - ओ - शुबहा - - - - नीलम - - -

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